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गजलें और शायरी >> संभाल कर रखना

संभाल कर रखना

राजेन्द्र तिवारी

प्रकाशक : उत्तरा बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8809
आईएसबीएन :9788192413822

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तुम्हारे सजने-सँवरने के काम आयेंगे, मेरे खयाल के जेवर सम्भाल कर रखना....

कुछ अपने बारे में...

मुझे शायरी का शौक़ कहाँ से लगा यह तो नहीं जानता, मगर इतना मालूम है कि कविता मुझे विरासत में नहीं मिली। उत्तराधिकार में स्व. राम कैलाश तिवारी के तीन पुत्रों में सबसे छोटा नाम मेरे हिस्से में आया। सन् 1972 में कैंसर हो जाने के कारण पिता का साया सर से उठ गया। वक़्त ने बस्ते के साथ अपने जिम्मेदारी के एहसास का बोझ भी कन्धों पर लाद दिया।
पिता जी की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति, अध्ययनशीलता, और पुस्तक प्रेम मेरे भीतर समाया हुआ था। समय के साथ ही कविताएं पढ़ने-सुनने का शौक़ न जाने कैसे तुकबन्दी में बदल गया और अनजाने में ही मैं शायरी के स्कूल में दाखिल हो गया। शुरुआती दौर में आम नौजवानों की तरह ज़ज्बों को ज़बान देकर डायरी में उतारता रहा।

1977-78 के आसपास संयोग से व्यंग्य कवि श्री ओम नारायण शुक्ल जी से परिचय हो गया। उन्हीं के द्वारा एक गोष्ठी में स्व. पं. कृष्णानन्द चौबे जी से पहली बार भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

चौबे जी का व्यक्तित्व वाकई विलक्षण था। वास्तव में, वे व्यक्ति नहीं स्वयं में संस्थान थे, एक स्कूल थे कविता और शायरी का। उनकी रचनात्मक सामर्थ्य, सरलता, सहृदयता और स्नेह से मैं इतना अभिभूत हुआ कि उन्हें अपना अभिभावक, मार्गदर्शक, गुरु अथवा यूँ कहें सब कुछ मान लिया।

उन दिनों प्रतिभाओं को संरक्षण देने के लिए नगर की समर्थ साहित्यिक संस्था ‘कविकुल’ सर्वाधिक चर्चित थी और चौबे जी ‘कविकुल’ के संस्थापक कुलसचिव थे। उनके स्नेहिल संरक्षण, सम्यक् मार्गदर्शन व उत्साहवर्धन ने मेरी रचनात्मकता को निखारने के साथ ही फिक्र को ग़ज़ल के सांचे में ढाल दिया। कुछ दिनों बाद ‘कविकुल’ के कुलाधिपति स्व. सतीश दुबे, जिन्हें सब प्यार से ‘बापू’ कहते थे, का विशेष प्रिय होने के कारण मैं नियमानुसार सर्वसम्मति से ‘कविकुल’ का सदस्य मनोनीत हो गया और कवि सम्मेलनों में भी जाने लगा। मैं पेशेवर कवि नहीं रहा इसलिए मंचों के लालच में शायरी से समझौता नहीं किया। गाहे-बगाहे पत्रिकाओं में ग़ज़लें भेज देता था। ग़ज़लों को पाठकों का स्नेह मिला। इस तरह प्रकाशन का सिलसिला शुरू हो गया। पत्रिकाओं की सूची बहुत लम्बी है। मुख़्तसर यूँ कि ‘हंस’, ‘नवनीत’, ‘कथादेश’, ‘अक्षरा’, ‘इन्द्रप्रथ भारती’, ‘कथन’, ‘गगनांचल’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ इत्यादि देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में शामिल होकर ग़ज़लें पाठकों तक पहुँचीं और उन्हें प्यार भी मिला। सिलसिला आज भी जारी है।

‘कविकुल’ के रचनाकार अक्सर साथ बैठकर साहित्य चर्चा करते थे। इन्हीं बैठकों के बीच हममिज़ाजी के कारण भाई अंसार क़म्बरी व सत्य प्रकाश शर्मा से गहरी दोस्ती हो गई। आज भी हमारी अधिकतर शामें ग़ज़ल की गुफ़्तगू में साथ-साथ गुजरती हैं। शायरी का मौजूदा हाल यूँ है कि –
सर पे ज़िम्मेदारियों का बोझ है, भारी भी है,
डगमगाते पांवों से लेकिन सफ़र जारी भी है।

शायरी मेरे लिए ‘पेशा’ नहीं ‘इबादत’ है और ग़ज़ल मेरी ‘मोहब्बत’। इसलिए मैं ग़ज़ल को हिन्दी-उर्दू के नाम पर बांटे जाने का क़ायल नहीं हूँ, बल्कि फ़िक्रमन्द हूँ कि –
तलफ़्फ़ुज़ों की जिरह और बयान के झगड़े,
ग़ज़ल की जान न ले लें ज़बान के झगड़े।

बहरहाल, ईश्वरीय कृपा और आप सब की शुभकामनाओं के सहारे यह संकलन आपके हवाले है। भरसक सावधानी के बाद भी संकलन में त्रुटियाँ हो सकती हैं। उनके लिए क्षमा-याचना सहित आपसे निवेदन इतना है कि –
मेरी तारीफ़ नहीं, मेरी शिकायत लिखिए,
आप जो चाहे लिखें ख़त में, मगर ख़त लिखिए।

- राजेन्द्र तिवारी

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